राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा उत्सव में दिखी उत्तराखंड की संस्कृति की झलक, गूंजी हुड़के की थाप

देहरादून। अयोध्या में भगवान राम अपने मंदिर में विराजमान हो गए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ-साथ देश और दुनिया से आए वीआईपी की मौजूदगी में इस पूरे कार्यक्रम को संपन्न करवाया गया। राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम में देश भर के राज्यों से लाए गए वाद्य यंत्रों की धुन सुनाई दी। उत्तराखंड के एक वाद्य यंत्र को भी इस मौके पर स्थान मिला। उत्तराखंड के वाद्य यंत्र हुड़के की थाप भी अयोध्या के राम मंदिर में सुनाई दी।

उत्तराखंडी संस्कृति की पहचान है हुड़का

हुड़का उत्तराखंड की प्राचीन वाद्य यंत्रों की एक निशानी है। हालांकि लंबे समय से उत्तराखंड के वाद्य यंत्रों की अपेक्षा हो रही है। सरकार के कार्यक्रम हों या फिर अन्य शादी समारोह, अब उनकी जगह बड़े-बड़े डीजे और स्टेज प्रोग्राम ने ले ली है, जबकि आज भी उत्तराखंड के साथ-साथ पड़ोसी देश नेपाल में भी इस वाद्य यंत्र का खूब प्रयोग किया जाता है। भगवान की स्तुति आराधना और प्रार्थना में पारंपरिक वाद्य यंत्रों का आज भी नेपाल में अच्छी तरह से प्रयोग किया जाता है। लेकिन यह बात भी सही है कि यह वाद्य यंत्र हमारे उत्तराखंड का ही है।

खास है हुड़के की बनावट

हुड़का- लोक वाद्यों में हुड़का कुमाऊं में सर्वाधिक प्रयोग में लाया जाता है। स्थानीय देवी-देवताओं के जागर के साथ ही यह विभिन्न उत्सवों, लोक गीतों और लोक नृत्यों में यह प्रयुक्त होता है। इसका मुख्य भाग लकड़ी का बना होता है, जिसे अन्दर से खोखला कर दिया जाता है।  दोनों ओर के सिरे बकरे के आमाशय की झिल्ली से मढ़कर आपस में एक-दूसरे की डोरी से कस दिया जाता है। लकड़ी के इस भाग को स्थानीय भाषा में नाई (नाली) कहते हैं, इसे बजाते समय कंधे में लटकाने के लिये, इसके बीच (कमर के पास) से कपड़े की पट्टी को डोरी से बांध दिया जाता है। बजाते समय कपड़े की पट्टी का खिंचाव हुड़के के पुड़ों और डोरी पर पड़ता है, जिससे इसकी आवाज संतुलित की जाती है, आवाज का संतुलन एवं हुड़के की पुड़ी पर थाप की लय पर वादक को विशेष ध्यान रखना होता है।

विलुप्त होने से बचाने की पहल की जरूरत

हुड़के के बिना हमारे लोकसंगीत की कल्पना मुश्किल है। ख़ास तौर पर कुमाऊँ के जागर हुड़के के बिना संपन्न नहीं हुआ करते। यहाँ 1 से 7 दिन के ज्यादातर जागर हुड़के की ताल पर ही लगा करते हैं। लोक संगीत में भी हुड़के की गमक ऐसा प्रभाव पैदा करती है कि हर कोई थिरकने में मजबूर हो जाता है। हुड़के की ध्वनि सभी ताल वाद्यों से अलग अपनी एक विशिष्ट पहचान भी रखती है। लेकिन आज यह हुड़का विलुप्ति की कगार पर है। लेकिन अयोध्या में इतने बड़े आयोजन के दौरान इस वाद्य यंत्र की गूंज सुनाई देना अपने आप में बड़ी पहल है। यदि इसे और अच्छे से प्रचार प्रसार मिलता है तो लोग इसकी तरफ दोबारा से आकर्षित होंगे। हालांकि हमारे उत्तराखंड के प्रख्यात गायक पद्मश्री प्रीतम भर्तवाण हों या फिर नरेंद्र सिंह नेगी अपने कार्यक्रमों में इस वाद्य यंत्र का प्रयोग हमेशा से करते आए हैं।

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